कोई दुराचारी एवं व्यभिचारी भी वेद-वचनों को मधुर भाषा में बोल कर श्रोतायों को मंत्र-मुग्ध कर सकता है, पर ज्ञान को केवल दूसरों को उप्देश्ने और वाह-वाही लूटने से नहीं अपितु स्वयं के आचार में धारण करने से ही सत्य-चरित्र का निर्माण होता है, जिसके साथ समाज में भी उस चरित्र की लौ से अज्ञान-विनाशी उजियारा होता है |
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
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