- प्रोफेसर कवलदीप सिंघ कंवल
ये शहर बहुत थका सा लगता है
अफ़वाहों को ज़रा आराम तो दो
जो निगहेबान वही बेईमान हैं आँखे
कौन नहीं बिकता सही दाम तो दो
नंगे बदन यूँ खुले चौराहे घूमते हैं
बेलिबासों का आखिर हमाम तो हो
तलबगारे-फनाही मेरे दोस्तो ठहरो
दुश्मनों को भी थोड़ा काम तो दो
मंज़रे-रुसवाई में देखना न कसर हो
है रह गई जो बाकी तमाम वो दो
क्या रिश्ता आखिर तुमने निभाया है
दोस्ती दुश्मनी कोई नाम तो दो
हाज़िर है सुकरात मिटने को फिर से
अपने हाथों से कंवल जाम तो दो
No comments:
Post a Comment