- कवलदीप सिंघ कंवल
ये तेरा साथ है
या हुस्न-ए-सफ़र है,
कि मंजिल की
अब इस रूह को
कोई ख्वाहिश नहीं बाकी;
अब तो यह हस्ती
चाहती है बस
वस्ल की इस राह पे
तेरा हाथ
अपने हाथ में लिए चलना;
ज़िन्दगी के
चन्द इन लम्हों को
तेरे ही आगोश में बिताना;
जीना तो बस
तेरे ही संग
तेरी आरजुओं, अरमानों
और तेरे सपनों को,
कुछ इस तरह कि
इस खुदी के वजूद का
आखरी कतरा भी
तेरे सागर में
मिटा दे
अपनी इस हस्ती को ...
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