- प्रोफ़ैसर कवलदीप सिंघ कंवल
खाली गागर जो खनक रही घना कियो मन सोर ||
कंवल जतन कर हारिये बढ़े यह औरों और ||१||
भेखी नित नव स्वांग करे एक करे एक धोय ||
बगुल स्माधि धर कंवल हंसै सम नहीं होय ||२||
कंवल यह मटकी प्रेम की कंकर मार न तोड़ ||
लाख जतन कर हारिये पुनहः न कबहु जोड़ ||३||
सुख दुख क्षणभंगुर कंवल मन काहे डोलाये ||
राखनहारा भूल के क्यूँ अपना आप गवाये ||४||
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