-प्रोफ़ेसर कवलदीप सिंघ कंवल
सुख और दुख मनुष्य के अपने नज़रिए में हैं...
जीवन चक्र की नियमबद्ध घटनायों को मनुष्य अपनी ही मनोदशा, अपने स्वार्थों, अकान्क्षायों तथा निहित मैं-वादी उदेश्यों के अनुरूप अपने लिए सुख एवं दुख में स्वयं ही विभाजित कर लेता है | फिर उन्ही कृत्रिम विभाजनों के जाल में स्वयं को ही उलझा कर अपने लिए ऐसी मानसिक परिस्थितियों का निर्माण कर लेता है जो अंततः उसी को ही उसी के रचित इस चक्रव्यूह में ऐसा उलझा कर रख देती हैं के वह अनंत प्रयत्नों के पश्चात भी अंतिम साँस तक इन्हीं में फंसा हुआ जीवन के मूल-तत्व, जो मूलतः अनादि निराकार परम-तत्व के साकार सरगुण स्वरूप को सम्पूर्ण सृष्टि में प्रत्यक्ष जान कर समस्त जीवित संसार के कल्याण के लिए अपनी जीवन रुपी अमूल्य पूँजी का उपयोग करते हुए तथा सर्व-जन-कल्याण के उद्देश्य को ही मनोधार्य कर अपना लौकिक जीवन यापन करते हुए परम-शक्ति में विलीन होना है, को पूर्णतः ही भुला देता है...
sooni sooni aankhein
ReplyDeletenamin kutch kutch
dil khaali saa
bharaa kutch kutch !
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Ilam ye toa hai
na dekhe gulea gulshan
tanhaai ka sabab
dukh kutch kutch !
jab dekha na sukh
sukh ki pehchan kaisi
shsaas hone laga
yahi toa hai sukh.
................Charanjitsingh Chandhok