-प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
तूँ न पुकार कर
न कोई गुहार कर,
अन्याय को,
शोषण को,
भष्टाचार को,
तंत्र के विकार को,
सभ्यता के संहार को,
सहता जा,
चुप चाप |
संचित कर,
सुख को,
एश्वर्य को,
वैभव को,
संपदा और
समृधि को,
अपने लिए,
और चंद
अपनों के लिए,
हो सीमित,
बस अपने ही
निहित स्वार्थ में |
फिर कभी जब
तेरा मन भरे,
खुद से
ग्लानि करे,
कुछ करने की
ललक जगे,
बस व्रत कर,
अन्न त्याग,
मौन धार,
नाच कर,
मोमबत्ती मार्च कर,
चार दिन का
उत्पात कर,
झाड़ दे,
शब्दों का जंजाल,
रेडिओ, टीवी
और इंटरनेट पर |
हो संतुष्ट,
अपने इस
महा-त्याग पर
हो भारमुक्त,
अपने हर कर्तव्य से,
हो तैयार,
पुनः उसी चक्र में,
जीवन की
वही लाश ढोने को |
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