- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
रे मन क्या तूँ खोज रहा
क्या खोया है तूँ ने
क्या अब तक नहीं पाया
मृग रे क्यूँ तूँ तृष्ण हुया
क्यूँ बनवा जा भटके
जो भटक भटक तूँ ने
है अब तक नहीं जाना
न था खोया कभी तुझसे
न पाना था कभी बाकी
जो था बस तेरा
है सद जो तेरा ही
रहा संग सदा तेरे
है सुगंधित विभोर जिससे
वो था तेरे भीतर ही
बस तेरे ही भीतर है
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