- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
जब पढ़ने मैं बैठ गया, पढ़ डाले सब ग्रंथ ||१||
पढ़ते यों जुग बीत गये, पाया न कोई अंत ||२||
अंत न कोयु पाया, कालिख बढ़ती जाये ||३||
जेता पढ़ा तेता कढ़ा, रोम रोम बिल्लाहे ||४||
पढ़ा सो मुर्ख जानिये, आपा सके न मंथ ||५||
अहं कंवल सिंचित किया, पढ़ने बैठा ग्रंथ ||६||
कढ़ा: कढ़ना - जलना, उबलना, लम्बी देर तक तपना
बिल्लाहे: चिलाना, चीख पुकार करना, तडफ़ कर दुहाई देना
मंथ: मथना, मंथन करना
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