- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
पानी का बुलबुला अपनी मचलती हस्ती पे गुमान कर चाहे जितना भी कौतुहल कर ले पर उसकी असली औकात मात्र क्ष्रणभंगुता है !
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- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
पानी का बुलबुला अपनी मचलती हस्ती पे गुमान कर चाहे जितना भी कौतुहल कर ले पर उसकी असली औकात मात्र क्ष्रणभंगुता है !
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
प्रेमत्व ही साक्षात् परमत्व है; सर्व दिशा में सम-प्रवाहित होने वाली प्रेम की निरछल व निस्वार्थ धारा समस्त सृष्टि में वास करती परम्-उर्जा के भावनात्मक प्रकटीकरण से हर हृदय को पुलकित और नवविभोर कर देती है |
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
रे मन क्या तूँ खोज रहा
क्या खोया है तूँ ने
क्या अब तक नहीं पाया
मृग रे क्यूँ तूँ तृष्ण हुया
क्यूँ बनवा जा भटके
जो भटक भटक तूँ ने
है अब तक नहीं जाना
न था खोया कभी तुझसे
न पाना था कभी बाकी
जो था बस तेरा
है सद जो तेरा ही
रहा संग सदा तेरे
है सुगंधित विभोर जिससे
वो था तेरे भीतर ही
बस तेरे ही भीतर है
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
इन करि मैला जे लगे पुर धुलते चलि जाय ||
मैला मनवा जो भया कित साबुन धुलि पाय ||१||
रे मैले मन को धोहिये साबुन गुरु बताय ||
अपना मनवा सौप दे मति गुरि ली प्रणाय ||२||
मनवा जोरी बहु करे चाबुक प्रेम लगाय ||
प्रेम की चाबुक जु लगे दरि गोबिंद के जाय ||३||
प्रेम नगर हरि का बसे निज धाम बनाय ||
ऐसी गंगा बहि चले अंग संग सभी डुबाय ||४||
सब मैला बह बह धुला कंवल प्रेम नहाय ||
प्रेम ह्रदय वासबो भये पुलकित मधुराय ||५||१||
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
प्रेम बड़ा न धर्म कोई दया बड़ा न जाप
प्रेम रचे तीर्थ ह्रदय दया बसे प्रभु आप
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
यूं बरसा आनंद घनघोर बस चलने भर इन राहों पे कंवल
शराबोर भीगते हैं पुलकित क्या होगा उस मंजिल का हाल
- प्रोफेसर कवलदीप सिंघ कंवल
किताबों के ढेर से यूँ किरदार नहीं निकलते
ज़िंदगी का सार पाने को एक लफ्ज़ ही काफी है
- प्रोफेसर कवलदीप सिंघ कंवल
क्या कहूँ
कि अधूरा है
हर लफ्ज़ मेरा
फिर बयाँ
कर सकता कैसे
उसको कभी भी
है जो
पूरा
अनंत
हमेशा
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
नेति हु श्रृष्टि ||
नेति सब द्रिष्टि ||
नेति रे भोग ||
नेति सब सोग ||
नेति सकल आकृति समाना ||
नेति सरस प्रकृति बिधनाना ||
नेति धर्म वेद बहु ग्रंथ ||
नेति कर्म भेद तप मंथ ||
नेति दैव अदैव संसारा ||
नेति पारा नेति हु अपारा ||
नेति स्वर्ग नर्क बहु-लोका ||
नेति आकाश पिंड गंग-स्रोता ||
नेति राग रूप बहुरंगा ||
नेति द्वेष शेष उमंगा ||
नेति प्रकट भया आकार ||
नेति अप्रकट निराकार ||
नेति नेति अहं ||
ब्रह्म अहं अस्मि ||
अहं ब्रह्मास्मि ||
जब तक खुद में खुदी शेष है तब तक मनुष्य कभी भी खुदा सा विशेष नहीं बन सकता |
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
अगर प्रेम व्योपार है तो इस व्योपार का परमो-लाभ प्रियतम की लगन में स्वयं को बिन मोल के पूर्णतः बेच देना है; पूर्णतः कि स्वयं में अपने अस्तित्व का एक भी कण शेष ना रहे, बाकी रखने लायक अगर एक कण भी बच जाये तो यह अद्वितीय प्रेम-सौदा लाभ का न रहेगा, तत्क्षण हानि का हो जायेगा |
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
सर्वे बिंदु सर्वो आकाश ||
सर्वे अंध सर्वो प्रकाश ||
सर्वे ब्रह्माणि ||
टूट गया भ्रम सब बाहर का,
जब सुद्ध स्वयं की पायी ।।
कहै कंवल इत मीत न कोई,
सद् चित सियों चित लायी ।।
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
धारना है आधार को
तो छोड़ दे आधार को
धर्म की है कामना तो
त्याग दे ये कामना भी
युक्ति से मुक्त हो
स्वयं का आभास कर
जान ले तूं गौण किन्तु
परमत्व की अंश है
भीतर ही प्रकाश जो
उसी से आत्मसात हो
सत्य निराकार जान
सत्य रूप साकार हो
ज्ञान की पूर्ण आहुति
ज्ञानोपरि की प्राप्ति
तजन मनन छोड़ दे
लिप्त में निर्लिप्त हो
साक्षी बन स्वयं का
साक्ष्य सब व्योहार हो
कठिनता से कठिन है
सरलता से हो सरल
क्रियम निष्क्रिय हो
करमं अकर्म धार ले
प्रभु प्रियतम के प्रेम को संसार की उन्नत से उन्नत भाषा में भी परिभाषित नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसे अद्वैत प्रेम की परिभाषा केवल और केवल उसका अनुभव है जो एक मूक व्यक्ति को प्राप्त हुए उस मिष्ठान की भांति है जिसे वह केवल चख सकता है पर उसे अभिव्यक्त करने का सामर्थ नहीं रखता |
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
सद्गुरु केवल ज्ञान ही हो सकता है; क्यूंकि देह सदा नहीं रह सकती, उसका आदि एवं अंत निश्चित है !
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल
ज्ञान वो अनादि अनुभव है जिसकी प्राप्ति की पहली और अंतिम सीढ़ी केवल सहज-प्रयत्नहीनता है; परन्तु विरले ही इस अद्भुत सत्य को जान पाने की शम्ता रखते हैं और बाकी सभ जीवन भर कोल्हू के बैल के भांति अनंत प्रयत्नों में लिप्त रहते हुए ज्ञान के पथ पर कदम भर भी आगे नहीं बढ़ पाते, क्यूँकि यह प्रयत्नों का ही चक्र है जो उनके मार्ग का सभ से बड़ा अवरोध है, और वो सदैव यह समझने में असमर्थ रहते हैं कि जो ज्ञान किसी भी प्रयत्न से प्राप्त हो सकता है वह कभी भी अनादि नहीं हो सकता क्यूँ कि उसका आदि तो साधक का अपना ही प्रयत्न होगा; और इससे भी अद्भुत यह है कि प्रयत्नों के चक्र से मुक्ति प्राप्त करने के लिये प्रयत्नों के कोल्हू को ही इतना तीव्र घुमाना पड़ता है कि इसी तीव्रता की प्रभाव से यह कोहलू टूट कर ढेरी हो जाये और साधक रूपी बैल ज्ञान के पथ पर अग्रसर होने के लिये इन प्रयत्नों के चक्र से पूर्णतः मुक्त हो जाये ...
- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल