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Sunday, August 28, 2011

Lokpal - Galat Kaun Hai?

-Kawaldeep Singh Kanwal

Aaj yeh swaal har jagah baar-2 poocha ja rha hai ke agar Anna apni jgah Sahi hain, Janta apni jagah Sahi hai, Sarkar apni jagah Sahi hai, Vipaksh apni jagah Sahi hai.... Toh aakhir Galat kaun hai?

  • Galat hai Ek hi disha mein Aankhen band karke sochna..
  • Galat hai Ek hi vichar ko pakad kar use hi  laagu karne ki zidd karna..
  • Galat hai apni baat ke aage kisi ki baat na maan-na..
  • Galat hai Bheed ki bhavnayon ko manipulate karke pure system aur soch ko paralyze karke "My way or Highway" jaisi situation create karna..
  • Galat Hai Koyi bhi Virodhi Vichar rakhne wale ka moonh band karne ke liye kisi bhi hadd tak jana..
  • Galat hai usi sanvidhaan jis me reh kar hi aapko virodh karne ka hakk milta hai mein diye gaye prastavon aur pravdhanon ko nakarna..
  • Galat hai khud ko hi har chiz ki antim authority or supreme correcting establishment maan-naa...

Baten ton aur bhi bahut galat hain.. Par hum logon ki sun-ne ki shamta bahut kam hai.. Kyunki hum aasani se kabhi bhi aur kisi ke bhi vicharon ki Football ban jate hain aur tab hi samajhte hain jab waqt hamare haath se poori trah nikal jata hai..............

Friday, July 1, 2011

किसी और लेखक की लेखनी अपने नाम से प्रकाशित करने संबंधी ...

-प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

सभी साहित्यकार एवं साहित्य से प्रेम करने वाले साथियों से अनुरोध है कि जब भी वह ऐसी कोई भी रचना सांझी करें जिसके लेखक वह खुद न हों तो उस के साथ मूल-रचनाकार का नाम ज़रूर डालें | बिना नाम डालें पोस्ट करने का मतलब है हम उस लेखनी को अपनी कह रहे हैं, जो कि किसी भी चोरी से कम नहीं और इसे करने वाला एक चोर/समाज-द्रोही ही है, जिसे "साहित्य-चोर" की संझा दी जाती है |

हमारे चरित्र के विकार के साथ-२ ऐसा करना कापीराईट कानून कि अवहेलना भी है जिस के दोश में कापीराईट एक्ट की धारा ६३ के अंतर्गत मूल रचयिता के न्यालय में जाने पर रचना चोरी करने वाले को भारी वितीय जुर्माने के साथ-साथ ५ साल तक की जेल का भी सामना करना पड़ सकता है | (ध्यान रहे इस एक्ट के अंतर्गत न्यालय हमेशा मूल-लेखक का ही पक्ष लेता है |)

कईं बार ऐसा होता है कि इन्टरनेट पर हमें कोई रचना ऐसी मिल जाती है जो हमें बहुत ही अच्छी लगती है और जिसे हम अपने प्रिय-जनों के साथ साँझा भी करना चाहते है पर जिस के रचयिता का पता बहुत ढूंढने से भी नहीं लगता, ऐसी स्थिति ही हमारे चरित्र कि असली परीक्षा होती है, जहां से ही हमारे मूल्यों एवं संस्कारों को परिभाषित किया जा सकता | किसी भी ऐसी लेखनी मिलने पर जिसके स्रोत का पता न हो उसे साँझा करते वक्त उसके साथ "लेखक एवं स्रोत - अज्ञात" लिख कर अपनी स्तिथि ज़रूर स्पष्ट करें | ऐसा करके हम न केवल चरित्र-निर्माण के पथ पर और आगे बढ़ते है बल्कि अपनी अपनी अंतर-आत्मा के सन्मुख हो सकने बल भी प्राप्त करते हैं |

आशा है आगे से हम जब भी किसी और लेखक की लेखनी अपने मित्र-जनों के साथ सांझी करेंगे तो इन बातों का ध्यान ज़रूर रखेंगे ..........

Saturday, January 29, 2011

सुख और दुख

-प्रोफ़ेसर कवलदीप सिंघ कंवल

सुख और दुख मनुष्य के अपने नज़रिए में हैं...

जीवन चक्र की नियमबद्ध घटनायों को मनुष्य अपनी ही मनोदशा, अपने स्वार्थों, अकान्क्षायों तथा निहित मैं-वादी उदेश्यों के अनुरूप अपने लिए सुख एवं दुख में स्वयं ही विभाजित कर लेता है | फिर उन्ही कृत्रिम विभाजनों के जाल में स्वयं को ही उलझा कर अपने लिए ऐसी मानसिक परिस्थितियों का निर्माण कर लेता है जो अंततः उसी को ही उसी के रचित इस चक्रव्यूह में ऐसा उलझा कर रख देती हैं के वह अनंत प्रयत्नों के पश्चात भी अंतिम साँस तक इन्हीं में फंसा हुआ जीवन के मूल-तत्व, जो मूलतः अनादि निराकार परम-तत्व के साकार सरगुण स्वरूप को सम्पूर्ण सृष्टि में प्रत्यक्ष जान कर समस्त जीवित संसार के कल्याण के लिए अपनी जीवन रुपी अमूल्य पूँजी का उपयोग करते हुए तथा सर्व-जन-कल्याण के उद्देश्य को ही मनोधार्य कर अपना लौकिक जीवन यापन करते हुए परम-शक्ति में विलीन होना है, को पूर्णतः ही भुला देता है...

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