Copyrights -> Kawaldeep Singh

myows online copyright protection

All content published on this blog is the copyright of Author (Kawaldeep Singh Kanwal), duly verified by the authorized third party. Do not use any content published here without giving the due credits to Author and/or without the explicit permission of the Author. Any non-compliance would face charges under COPYRIGHT ACT.

Showing posts with label राजनितिक मुद्दे. Show all posts
Showing posts with label राजनितिक मुद्दे. Show all posts

Saturday, May 24, 2014

बस चुप रहो / بس چُپ رہو

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

लूट कर वो देश तेरा, भर लें तिजोरी अपनी, बस चुप रहो
लाशों से भरें गलियाँ, खून से भी खेलें होली, बस चुप रहो

भूल कर न चोर कहना, कातिल को न सुनाना, बस चुप रहो
चौपट की अंधी नगरी, सच्च को है फाँसी गोली, बस चुप रहो

~0~0~0~0~

- پروپھئسر کولدیپ سِںگھ کنول

لُوٹ کر وو دیش تیرا، بھر لیں تِجوری اَپنی، بس چُپ رہو
لاشوں سے بھریں گلِیاں، خون سے بھی کھیلیں ہولی، بس چُپ رہو

بھول کر ن چور کہنا، کاتِل کو ن سُنانا، بس چُپ رہو
چؤپٹ کی اَںدھی نگری، سچ چ کو ہے پھاںسی گولی، بس چُپ رہو

Thursday, May 22, 2014

अंजाम–ऐ–पानी-पानी / اَںجام–ء–پانی-پانی

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

हर आँधी को सीने झेले यूँ कि आग न अंदर बुझने दी
तूँ बर्फ़ सा हो भी आयेगा अंजाम तो पानी पानी होगा

- پروپھئسر کولدیپ سِںگھ کنول

ہر آںدھی کو سینے جھیلے یُوں کہ آگ ن اَںدر بُجھنے دی
تُوں بر ف سا ہو بھی آئیگا اَںجام تو پانی پانی ہوگا

जनून / جنُون

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

है जनून अपनी राख़ से जी उठने का इस कदर
कि धधकती आग में भी हम बेख़ौफ़ उतरते है

- پروپھئسر کولدیپ سِںگھ کنول

ہے جنُون اَپنی راخ سے جی اُٹھنے کا اِس قدر
کہ دھدھکتی آگ میں بھی ہم بےخوف اُترتے ہے

वो आँसू / وو آںسُو

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

एक ईमारत पे सिजदे में कैसे वो आँसू बह निकले
हज़ारों लाशें चीथड़े भी जिन्हें न तरल कभी कर पाये

- پروپھئسر کولدیپ سِںگھ کنول

ایک ئیمارط پے سِجدے میں کیسے وو آںسُو بہ نِکلے
ہزاروں لاشیں چیتھڑھے بھی جِنہیں ن ترل کبھی کر پائے

Wednesday, May 21, 2014

हाथ भर का बदलना / ہاتھ بھر کا بدلنا

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

बहुत हो गई बातें कोई नया सा सूरज उगाने की
मुट्ठी भर बीज नाब्युला गर ला सको तो लायो

घिसी हुयी क्रांति और बदलाव के ये बातूनी नारे
जगा सको तो पहले ख़ुद में लौअ सच्च जगायो

दमगज़ों के सर कहाँ कभी यूँ इन्कलाब आये हैं
हो हाँकते ज़माना कभी बोझ अपना भी उठायो

बस सत्ता बदलने पर ही मान मुनव्वल हो जाना
मर्ज़-ए-ख़ुशफ़हिमी को न इस कदर भी बढ़ायो

चाबुक भी वही है और खाल भी वही है तुम्हारी
इस हाथ बदलने भर पे कंवल न इतना जश्नायो

~0~0~0~0~

- پروپھئسر کولدیپ سِںگھ کنول

بہُت ہو گئی باتیں کوئی نیا سا سُورج اُگانے کی
مُٹ ٹھی بھر بیج ناب یُلا گر لا سکو تو لایو

گھِسی ہوئی کراںتی اور بدلاو کے یہ باتُونی نارے
جگہ سکو تو پہلے خُد  میں لؤع سچ چ جگائےاُ

دمگظاُں کے سر کہاں کبھی یُوں اِنکلاب آئے ہیں
ہو ہاںکتے ظمانا کبھی بوجھ اَپنا بھی اُٹھایو

بس ستّا بدلنے پر ہی مان مُنو ول ہو جانا
مرضی़-اے-خُشفہِمی کو ن اِس قدر بھی بڑھاےاُ

چابُک بھی وہی ہے اور کھال بھی وہی ہے تُمہاری
اِس ہاتھ بدلنے بھر پے کنول ن اِتنا جش نایو

Sunday, April 13, 2014

थप्पड़ क्यों ?

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

धोखा देने भर से ही अगर होते थप्पड़ रसीद मुल्क में
तो इस देश ने नेतायों का कब से नस्लघात किया होता

कभी झंडे तो कभी स्याही कभी अंडे घूसे थप्पड़ बरसें 
पिंजर भी नुच जाते उनके अगर ऐसे बदला लिया होता

एक आदमी आम सा बेचारा कोई भी आ पीट जाता है
सीधा इनकाउंटर होता उसका जो मूंह उधर किया होता

ऐसा भी क्या यह नेता जनता के बीच निकलता सीधा 
अरे कुछ कारवाँ तो रखता कुछ रौयब जान जिया होता

वो जितने सालों थे चिपके ये उतने दिन भी नहीं काटा
कुछ रिश्वत कोई दंगा फैलाता यूँ न इस्तीफ़ा दिया होता

है मूर्ख यह कैसा सत्ता रहते जो धरने पे बैठ गया
कुछ सदन तो ठप्प करता कोई मिर्च स्प्रे किया होता

कुछ विकास का शोरोगुल कोई प्रापेगंडे का तड़का होता
बैठ पूँजीपतियों की गोदी में जीवन आनंद लिया होता

पत्नी को कुर्सी दिलवाता कंवल बेटा भी मंत्री बनता
मिल बाँट के इसने भी कुछ काम ढंग से किया होता

Thursday, August 15, 2013

सवालयाफ़्ता

- प्रोफेसर कवलदीप सिंघ कंवल

ये शहर बहुत थका सा लगता है
अफ़वाहों को ज़रा आराम तो दो

जो निगहेबान वही बेईमान हैं आँखे
कौन नहीं बिकता सही दाम तो दो

नंगे बदन यूँ खुले चौराहे घूमते हैं
बेलिबासों का आखिर हमाम तो हो

तलबगारे-फनाही मेरे दोस्तो ठहरो 
दुश्मनों को भी थोड़ा काम तो दो

मंज़रे-रुसवाई में देखना न कसर हो
है रह गई जो बाकी तमाम वो दो

क्या रिश्ता आखिर तुमने निभाया है
दोस्ती दुश्मनी कोई नाम तो दो

हाज़िर है सुकरात मिटने को फिर से
अपने हाथों से कंवल जाम तो दो

Sunday, August 28, 2011

Lokpal - Galat Kaun Hai?

-Kawaldeep Singh Kanwal

Aaj yeh swaal har jagah baar-2 poocha ja rha hai ke agar Anna apni jgah Sahi hain, Janta apni jagah Sahi hai, Sarkar apni jagah Sahi hai, Vipaksh apni jagah Sahi hai.... Toh aakhir Galat kaun hai?

  • Galat hai Ek hi disha mein Aankhen band karke sochna..
  • Galat hai Ek hi vichar ko pakad kar use hi  laagu karne ki zidd karna..
  • Galat hai apni baat ke aage kisi ki baat na maan-na..
  • Galat hai Bheed ki bhavnayon ko manipulate karke pure system aur soch ko paralyze karke "My way or Highway" jaisi situation create karna..
  • Galat Hai Koyi bhi Virodhi Vichar rakhne wale ka moonh band karne ke liye kisi bhi hadd tak jana..
  • Galat hai usi sanvidhaan jis me reh kar hi aapko virodh karne ka hakk milta hai mein diye gaye prastavon aur pravdhanon ko nakarna..
  • Galat hai khud ko hi har chiz ki antim authority or supreme correcting establishment maan-naa...

Baten ton aur bhi bahut galat hain.. Par hum logon ki sun-ne ki shamta bahut kam hai.. Kyunki hum aasani se kabhi bhi aur kisi ke bhi vicharon ki Football ban jate hain aur tab hi samajhte hain jab waqt hamare haath se poori trah nikal jata hai..............

Thursday, June 16, 2011

राष्ट्र का संकल्प

-प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

किसी भी राष्ट्र के निर्माण एवं उन्नति में उसके अल्पसंख्यकों के योगदान को गौण नहीं आँका जा सकता; ख़ास कर भारत जैसे बहु-सभ्यक, बहु-भाषाई, बहु-धर्मीय, बहु-जातीय एवं बहु नस्लीय राष्ट्र में तो बिलकुल भी नहीं ! भिन्न-२ श्रेणियों के इतने बड़े मानव समूह को एक राष्ट्र में पिरोए रखने के लिए हमें हर श्रेणी की भावनाओ एवं अकांक्षायों को सन्मान के साथ न केवल देखना होगा अपितु हर हाल में उनके विचारों और अपेक्षायों को तंत्र में स्थान देना होगा, साथ ही साथ अपनी पूर्वधारणायों को त्याग कर बड़े समझोतों के लिए भी तैयार होना होगा | कुछ लोग इसे राष्ट्र को खंडित करने वाला विचार मानते हैं, पर यह ध्यान रखना होगा कि राष्ट्र केवल भूमि का एक टुकड़ा मात्र नहीं अपितु मानव संवेदनायों से जुड़ा प्रश्न है, जिसे कृत्रिम अवधारणायों से नहीं यथार्थवाद से ही हल किया जा सकता है | जब मानव संवेदनायों से राष्ट्र का संकल्प निकल जाये तो भूमि पे इसे कदापि कायम नहीं रखा जा सकता |

Comments

.