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Wednesday, May 21, 2014

हाथ भर का बदलना / ہاتھ بھر کا بدلنا

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

बहुत हो गई बातें कोई नया सा सूरज उगाने की
मुट्ठी भर बीज नाब्युला गर ला सको तो लायो

घिसी हुयी क्रांति और बदलाव के ये बातूनी नारे
जगा सको तो पहले ख़ुद में लौअ सच्च जगायो

दमगज़ों के सर कहाँ कभी यूँ इन्कलाब आये हैं
हो हाँकते ज़माना कभी बोझ अपना भी उठायो

बस सत्ता बदलने पर ही मान मुनव्वल हो जाना
मर्ज़-ए-ख़ुशफ़हिमी को न इस कदर भी बढ़ायो

चाबुक भी वही है और खाल भी वही है तुम्हारी
इस हाथ बदलने भर पे कंवल न इतना जश्नायो

~0~0~0~0~

- پروپھئسر کولدیپ سِںگھ کنول

بہُت ہو گئی باتیں کوئی نیا سا سُورج اُگانے کی
مُٹ ٹھی بھر بیج ناب یُلا گر لا سکو تو لایو

گھِسی ہوئی کراںتی اور بدلاو کے یہ باتُونی نارے
جگہ سکو تو پہلے خُد  میں لؤع سچ چ جگائےاُ

دمگظاُں کے سر کہاں کبھی یُوں اِنکلاب آئے ہیں
ہو ہاںکتے ظمانا کبھی بوجھ اَپنا بھی اُٹھایو

بس ستّا بدلنے پر ہی مان مُنو ول ہو جانا
مرضی़-اے-خُشفہِمی کو ن اِس قدر بھی بڑھاےاُ

چابُک بھی وہی ہے اور کھال بھی وہی ہے تُمہاری
اِس ہاتھ بدلنے بھر پے کنول ن اِتنا جش نایو

Sunday, April 13, 2014

तेरे भीतर

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

रे मन क्या तूँ खोज रहा
क्या खोया है तूँ ने
क्या अब तक नहीं पाया
मृग रे क्यूँ तूँ तृष्ण हुया
क्यूँ बनवा जा भटके
जो भटक भटक तूँ ने
है अब तक नहीं जाना
न था खोया कभी तुझसे
न पाना था कभी बाकी
जो था बस तेरा
है सद जो तेरा ही
रहा संग सदा तेरे
है सुगंधित विभोर जिससे
वो था तेरे भीतर ही
बस तेरे ही भीतर है

थप्पड़ क्यों ?

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

धोखा देने भर से ही अगर होते थप्पड़ रसीद मुल्क में
तो इस देश ने नेतायों का कब से नस्लघात किया होता

कभी झंडे तो कभी स्याही कभी अंडे घूसे थप्पड़ बरसें 
पिंजर भी नुच जाते उनके अगर ऐसे बदला लिया होता

एक आदमी आम सा बेचारा कोई भी आ पीट जाता है
सीधा इनकाउंटर होता उसका जो मूंह उधर किया होता

ऐसा भी क्या यह नेता जनता के बीच निकलता सीधा 
अरे कुछ कारवाँ तो रखता कुछ रौयब जान जिया होता

वो जितने सालों थे चिपके ये उतने दिन भी नहीं काटा
कुछ रिश्वत कोई दंगा फैलाता यूँ न इस्तीफ़ा दिया होता

है मूर्ख यह कैसा सत्ता रहते जो धरने पे बैठ गया
कुछ सदन तो ठप्प करता कोई मिर्च स्प्रे किया होता

कुछ विकास का शोरोगुल कोई प्रापेगंडे का तड़का होता
बैठ पूँजीपतियों की गोदी में जीवन आनंद लिया होता

पत्नी को कुर्सी दिलवाता कंवल बेटा भी मंत्री बनता
मिल बाँट के इसने भी कुछ काम ढंग से किया होता

Tuesday, April 8, 2014

भये पुलकित मधुराय

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

इन करि मैला जे लगे पुर धुलते चलि जाय ||
मैला मनवा जो भया कित साबुन धुलि पाय  ||१||

रे मैले मन को धोहिये साबुन गुरु बताय ||
अपना मनवा सौप दे मति गुरि ली प्रणाय ||२||

मनवा जोरी बहु करे चाबुक प्रेम लगाय ||
प्रेम की चाबुक जु लगे दरि गोबिंद के जाय ||३||

प्रेम नगर हरि का बसे निज धाम बनाय ||
ऐसी गंगा बहि चले अंग संग सभी डुबाय ||४||

सब मैला बह बह धुला कंवल प्रेम नहाय ||
प्रेम ह्रदय वासबो भये पुलकित मधुराय ||५||१||

Wednesday, January 15, 2014

ईमाँ / ئیماں

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

कोई ज़मीं को बेचे कोई आसमान को बेचे
कोई ख़ुदी को बेचे तो कोई जहान को बेचे
कोई वफ़ा को बेचे कोई सनमान को बेचे
कोई दिल को बेचे तो कोई ज़ुबान को बेचे
कोई बिक गया ख़ुद ही कोई औकात भी बेचे
क्या ईमाँ तेरा काज़ी ख़ुदा की ज़ात जो बेचे

~०~०~०~०~

- پروپھئسر کولدیپ سِںگھ کنول

کوئی ظمیں کو بیچے کوئی آسمان کو بیچے
کوئی خُدی کو بیچے تو کوئی جہان کو بیچے
کوئی وفا کو بیچے کوئی سنمان کو بیچے
کوئی دِل کو بیچے تو کوئی ظُبان کو بیچے
کوئی بِک گیا خُد  ہی کوئی اؤکات بھی بیچے
کیا ئیماں تیرا قاضی خُدا کی ظاط جو بیچے

Thursday, August 15, 2013

सवालयाफ़्ता

- प्रोफेसर कवलदीप सिंघ कंवल

ये शहर बहुत थका सा लगता है
अफ़वाहों को ज़रा आराम तो दो

जो निगहेबान वही बेईमान हैं आँखे
कौन नहीं बिकता सही दाम तो दो

नंगे बदन यूँ खुले चौराहे घूमते हैं
बेलिबासों का आखिर हमाम तो हो

तलबगारे-फनाही मेरे दोस्तो ठहरो 
दुश्मनों को भी थोड़ा काम तो दो

मंज़रे-रुसवाई में देखना न कसर हो
है रह गई जो बाकी तमाम वो दो

क्या रिश्ता आखिर तुमने निभाया है
दोस्ती दुश्मनी कोई नाम तो दो

हाज़िर है सुकरात मिटने को फिर से
अपने हाथों से कंवल जाम तो दो

Monday, February 4, 2013

एक लफ्ज़

- प्रोफेसर कवलदीप सिंघ कंवल

किताबों के ढेर से यूँ किरदार नहीं निकलते
ज़िंदगी का सार पाने को एक लफ्ज़ ही काफी है

Sunday, February 3, 2013

क्या कहूँ

- प्रोफेसर कवलदीप सिंघ कंवल

क्या कहूँ
कि अधूरा है
हर लफ्ज़ मेरा
फिर बयाँ
कर सकता कैसे
उसको कभी भी
है जो
पूरा
अनंत
हमेशा

Friday, November 16, 2012

अहं ब्रह्मास्मि

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

नेति हु श्रृष्टि ||
नेति सब द्रिष्टि ||
नेति रे भोग ||
नेति सब सोग ||
नेति सकल आकृति समाना ||
नेति सरस प्रकृति बिधनाना ||
नेति धर्म वेद बहु ग्रंथ ||
नेति कर्म भेद तप मंथ ||
नेति दैव अदैव संसारा ||
नेति पारा नेति हु अपारा ||
नेति स्वर्ग नर्क बहु-लोका ||
नेति आकाश पिंड गंग-स्रोता ||
नेति राग रूप बहुरंगा ||
नेति द्वेष शेष उमंगा ||
नेति प्रकट भया आकार ||
नेति अप्रकट निराकार ||
नेति नेति अहं ||
ब्रह्म अहं अस्मि ||
अहं ब्रह्मास्मि ||

Sunday, September 30, 2012

तेरा साथ

- कवलदीप सिंघ कंवल

ये तेरा साथ है
या हुस्न-ए-सफ़र है,
कि मंजिल की
अब इस रूह को
कोई ख्वाहिश नहीं बाकी;
अब तो यह हस्ती
चाहती है बस
वस्ल की इस राह पे
तेरा हाथ
अपने हाथ में लिए चलना;
ज़िन्दगी के
चन्द इन लम्हों को
तेरे ही आगोश में बिताना;
जीना तो बस
तेरे ही संग
तेरी आरजुओं, अरमानों
और तेरे सपनों को,
कुछ इस तरह कि
इस खुदी के वजूद का
आखरी कतरा भी
तेरे सागर में
मिटा दे
अपनी इस हस्ती को ...

Tuesday, May 22, 2012

सर्वे ब्रह्माणि

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

सर्वे बिंदु सर्वो आकाश ||
सर्वे अंध सर्वो प्रकाश ||
सर्वे ब्रह्माणि ||

Tuesday, May 15, 2012

सद् चित सियों चित लायी

टूट गया भ्रम सब बाहर का,
जब सुद्ध स्वयं की पायी ।।
कहै कंवल इत मीत न कोई,
सद् चित सियों चित लायी ।।

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

Monday, May 14, 2012

करमं अकर्म धार ले

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

धारना है आधार को
तो छोड़ दे आधार को
धर्म की है कामना तो
त्याग दे ये कामना भी
युक्ति से मुक्त हो
स्वयं का आभास कर
जान ले तूं गौण किन्तु
परमत्व की अंश है
भीतर ही प्रकाश जो
उसी से आत्मसात हो
सत्य निराकार जान
सत्य रूप साकार हो
ज्ञान की पूर्ण आहुति
ज्ञानोपरि की प्राप्ति
तजन मनन छोड़ दे
लिप्त में निर्लिप्त हो
साक्षी बन स्वयं का
साक्ष्य सब व्योहार हो
कठिनता से कठिन है
सरलता से हो सरल
क्रियम निष्क्रिय हो
करमं अकर्म धार ले

Monday, December 26, 2011

शिद्दत / شدت

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

तेरे दर से,
खाली हाथ,
मैं ना जायूँगा;
तू खुदा है,
है मालिक मेरा,
बेशक,
मैं भी तो
कोई और नहीं,
तेरा ही बंदा हूँ,
आखिर तेरे वजूद,
तेरी ही ज़िद की,
कुछ तो
तासीर रखता हूँ;
ऐसी शिद्दत से
माँगूँगा,
जब भी माँगा,
तुझसे ओ मौला,
तुझे देने को
मजबूर कर जायूँगा |

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پروفیسر کولدیپ سنگھ کنول -

تیرے در سے،
خالی ہاتھ،
میں نہ جایونگا؛
تو خدا ہے،
ہے مالک میرا،
بیشک،
میں بھی تو
کوئی اور نہیں،
تیرا ہی بندہ ہوں،
آخر تیرے وجود،
تیری ہی ضد کی،
کچھ تو
تاثیر رکھتا ہوں؛
ایسی شدت سے
مانگونگا،
جب بھی مانگا،
تجھ سے او مولٰی،
تجھے دینے کو
مجبور کر جایونگا

Sunday, December 25, 2011

चर्चा गरीब का / چرچا غریب کا

- प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

चर्चा गरीब का

 

پروفیسر کولدیپ سنگھ کنول -

ان محفلوں میں نہ، کبھی چرچا غریب کا
سکڑ جینا چاہے جو، اس بد نصیب کا

دن بھر مشکت، اور راتوں کو بھوکھ لیے،
کندھے اپنے ڈھوتا، بوجھ اپنی صلیب کا

آخر سوچیں بھی کیوں، کبھی اسکے بارے میں،
وجود بھی نہ مانو، تقاضہ یہ تہذیب کا

پھول تتلیاں چھوڑے، رومانیت نہ گایے،
کیسے مان لیں ہونا، کسی ایسے ادیب کا

کہیں بم پھٹا، باڑھ- و-بھوچال کہیں آیا،
چائے سنگ دم ٹوٹا، اخبار بیترتیب کا

بہت مرتے ایسے، روزانہ خبر بنتے ہیں،
کیوں سوچوں پھر بھلا، نہیں میرا قریب کا

بگڑ جاتا ہے توازن، ہماری زندگی کا،
بھول سے بھی کنول ہو، کبھی چرچا غریب کا

Saturday, December 3, 2011

Thursday, October 13, 2011

हर रोज़ मिटे

-प्रोफैसर कवलदीप सिंघ कंवल

हर रोज़ मिटे

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